कमाल करते हो , सब जानते हो तो हल निकालो न . किसका . भाई, तुम्हीं जानो , तुम्हें तो सब पता है . मुझे सब पता है लेकिन तुम क्या चाहते हो ,यह तो बताओ . बताने से क्या होगा . क्या जानें ,मेरे बताने में भी कोई दोष हो ..इसलिए तुम खुद ही समस्या का हवाला खोजो और फिर हवाले का हल भी. ऐसा कैसे हो सकता है ... कैसे नहीं ,, तुम तो सर्वज्ञानी हो .. वो तो हूँ पर तुम्हारा मसला टेढ़ा लग रहा है.. कितना काफी मात्रा में या लम्बाई चौडाई में . मसले लम्बे चौड़े ही होते हैं . तो . तो क्या इन्चिताप लाऊं . लानत है तुम पर ...
Atul Arora बैंकों के खातों में से गुप्त किन्हीं रास्तो से हुंडियों की भीड़ में से बेनाम निकला हवाला का निवाला गली मोहल्ले शहर देश विदेश में घटाटोप सरसराता पूरे भूमंडल की वित्त व्यवस्था की खुराक हुंकारता फन तन गया ... लज़ीज़ किसका अज़ीज़ कहीं डाकू बन गया ... ठन ठन गोपाल डसे जाने वाले बेहाल हालांकि मुझ जैसे दूसरे तमाम लोगों की कहीं दूर दराज़ तक कमी नहीं थी ... पर कैसे है न गुम सुम चलते ही रहते है.. भीड़ों की भीड़ में रोजाना जद्दोजहद में होश नहीं रोष नहीं संतोष का कोई तिनका हवा ही में उड़ता उडाता इन तक आता है ..बातचीत गुलगपाड़ा नाच टाप फ़िल्मी सा लगातार महफूज़ बना रखता है ..वक़्त कब बदलता है माप ताप फिक्रें श्राप सारे हिस्से के उत्सव बन जाते हैं अन्ना जैसा कोई जब गुस्से में आता है ...
by Atul Arora on Tuesday, August 2, 2011 at 9:35am .
देखिये,भवानी बाबू की तरह मेरे पास हर किस्म की चीज़ नहीं है बेचने के लिए .. न मेरी भाषा में वह तंज़ है .. फिर भी बाज़ार में तो हूँ और व्यंग्य का सहारा है थोडा बहुत ...रोजमर्रा के जीने में होने वाली टूट फूट में क्विक फिक्स की माफिक काम में आने वाला पैर कई बार ऐसा भी होता है की उंगलियाँ चिपक जाती हैं और बात फिर बन नहीं पाती .. खुद मुझे ही ज़ख्म खाने / धोने पड़ते हैं ,मरम्मतें लगानी पड़ती हैं इधर उधर .. बातें बिगड़ जाती हैं और हंसी हंसी की चीज़ बड़ी भयानक होने लगती है .. तो आज मैं आपकी नज़र बादाम पेश करता हूँ .. नट्स यु नो ... नट बोल्ट्स भी ... नट्स खाने के लिए ..नट बोल्ट्स दांतों की मरम्मत के लिए .. ऐसा है कि नट्स या बादाम पेश कर रहा हूँ ,गिरियाँ नहीं ...गिरियाँ आपको निकालनी हैं ...कुछ मेहनत तो करनी होगी न ... कई लोग दांतों का इस्तेमाल करते देखे गए हैं इन्हें तोड़ने के लिए तो वो करें .. नट बोल्ट्स हाज़िर हैं ...हथौडे का इस्तेमाल करने वाले दिमागी कसरत करेंगे ... देखते हैं लहू कहाँ कहाँ से निकलता है ... फिलहाल कसरत कीजिये ... धन्यवाद ...
ATUL VIR ARORA सितम्बर १९६६ की एक बोहीमियन शाम थी वह ..मैं अभी एम. ए के लिए हिंदी विभाग में दाखिल ही हुआ था .डॉ. इन्द्रनाथ मदान के घर पर एक कविता शाम का आयोजन था .मुझे भी निमंत्रण था कि मैं अपनी कविता के साथ हाज़िर हो जाऊं .
चल , आ जाना शाम को मेरे घर . कुडियां नूं तां सुनांदा हैं तूं ...असीं वी सुनिए तैनूं ...
मैं हैरान कि कुडियां वाली बात कहाँ से पैदा हो गयी .अपनी झेंप एक तरफ रखते हुए मैं अभी शुक्रिया कहने की पशोपेश में था कि वो बोले ..
अच्छी जई कविता पढीं ... ओथे वड्डे धुरंधर कवि होनगे .
गर्मी की छुट्टियों में की गयी अपनी कलकत्ता यात्रा का जायका मेरे ज़हन में अभी ताज़ा था और विक्टोरिया मैमोरियल के इतिहास के पार्श्व को एक समकालीनता में विद्रूपित ढंग से संदर्भित करती हुई अपनी कविता जेब में डाले मैं बंकिम चन्द्र के 'आनंद मठ' की घोर राष्ट्रीयता, जिसे उन दिनों भी कुछ कुछ भ्रमित ही माना जाता था, से आलोड़ित ,टैगोर के 'गोरा' की विडम्बनाओं से त्रस्त और शरत के 'देवदास' की आवारगी के कब्ज़े में अधिकृत अपनी साइकिल पर सवार उनके घर जा पहुंचा. अकविता का दौर अभी चल रहा था और मेरे काव्यानुशासन में का गीत अपनी पटरी से उतर कर काफ्का कामुयाई हो चुका था . शरद देवड़ा का उपन्यास 'कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा 'अभी छपकर नहीं आया था लेकिन उसमें निहित चर्चाएँ और गिन्सबर्ग के नंगेज़ का शोर ज़रूर गरम था .
अस्तित्ववाद पर लिखे गए कैलाश वाजपेयी के लेख 'ज्ञानोदय' के माध्यम से च्झापकर आने के बाद हिंदी संसार में दर्ज हो चुके थे ... आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कि आभा ,आलोक और विद्वता का प्रभुत्व बनारस से चलकर चंडीगढ़ और उसके आसपास के इलाकों में स्थापित हो चुका था . कविता शाम कि अध्यक्षता भी वही कर रहे थे ..
मैंने साइकिल क्लोडनन की बाड़ के सहारे टिका दी और एक ज़बरदस्त उत्सवी माहौल में किसी पुरजोर जुम्बिश के साथ डॉ. मदान के घर के भीतर दाखिल हुआ . पूरे लॉन में दरियां और चादरें बिछी थीं .बीसियों लोग विराजमान थे .अध्यापक, छात्र , कविगण , श्रद्धालु और श्रोता . एक अच्छा खासा भद्र समाज .एक कोई सुरेशचंद्र वात्स्यायन थे जो अपना काव्य पाठ शुद्ध एवं क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ हिंदी में 'सविनय निवेदन है' कहकर कर रहे थे (जिनके बारे में बाद में पता चला कि डॉ. मदान उन्हें पांन चुब्लाते हुए फतवा देने से बाज़ नहीं आते थे कि यह आदमी कविता पढता है कि अप्लीकेशन लिखता है ...! मदान साहब की ऐसी टिप्पणियों का अपना ही संसार था .मजाहिया ... बैठे ठाले वाले उनके लेखों जैसा...मसलन , मैथिलीशरण गुप्त को वो राष्ट्रकवि क्या कवि भी मानने को तैयार नहीं थे ... उनका प्रसिद्ध वाक्य था कि 'राष्ट्रकवि' शब्द कुछ कुछ वैसे ही है जैसे 'दालचीनी' जिसमें न दाल है न चीनी . तो मैथिली जी की कविता में न राष्ट्रीयता है ,न वे कवि हैं ... हैं भी तो वे मात्र सलेटी कवि हैं जो सलेट पर लिखता है ...तुकें भिडाता और मिटाता है ... शायद इसीलिए जब वे 'साकेत ' का नवम सर्ग पढ़ाते थे तो क्लास से भाग जाने का मन होता था .. उनकी क्लास में वैसे भी आप फिकरेबाजी सुनने के लिए बैठना चाहो तो बैठ सकते थे ..गहरे पानी पैठ वहां का दृश्य नहीं था ...हालांकि शायद यह उनका स्टाइल था ...सूत्र शैली वाला ... सूत्रधार वाला नहीं ...!)
मदान जी ने मेरी और उनकी पहली और अंतिम मुलाक़ात में मुझ पर भी चुटकी ली थी - मैं अपनी सालियों को चुटकुले सूना रहा था, वे मेघजी की ओर मुखातिब हुए और बोले 'तुम्हारा दामाद भी मेरी ही कैटेगरी का है' |
उनके छात्र उनकी नक़ल उतारते थकते नहीं थे .वो उम्र ही ऐसी होती है शायद कि बड़े से बड़ा आदमी भी छोटों की दुनिया में अजीब मसखरेपन का शिकार हो जाता है पर मदान साहब तो खुद ही मसखरी से बाज़ नहीं आते थे .. मेरे बारे में अक्सर वो यही कहते थे कि मैं अज्ञेय का 'शेखर ' बनने की कोशिश करता रहता हूँ ..यह तब की बात है जब शेखर को समझने के औज़ार भी नहीं थे मेरे पास .. पर खैर ..यह दुनिया है और दुनिया में हम सब हैं .. जब तक हैं ,तब तक ... औरतें इस दुनिया में हम से पहले आई हों या बाद में या दोनों एक साथ भी आये हो सकते हैं ...इसे समझाने में मदान साहब की कोई मदद मुझे नहीं मिली
..हालांकि उन्होंने हमें 'कामायनी ' भी पढाई ..और उसे एक असफल कृति कहते हुए उसकी असफलता को महान भी बतलाया ..! श्रद्धा और मनु की ऊब चूब में इडा से मार खाते न खाते मैंने भी एक बड़ी चीज़ ज़रूर सीख ली ...स्वाधीनता ... स्वतंत्र किस्म का सोचना ... बाड़ों में न घिरना .. आत्मरति की हद तक अपने आप से प्रेम .. बीमार नहीं ... कृति की राह वाली रति जैसा ... अपनी संशशलिष्टताओं को पहचानना और लगातार परखना ...सतह पर रहते हुए गहरे उतरना ...'अधिक ' और 'कम' , 'लय' और 'अन्विति'जैसे शब्दों की आवृत्तियों में शास्रीयता के बखिये उधेड़ने वाली आलोचना की खोज ...'इस तरह न होकर उस तरह क्यों नहीं' से परहेज़ की सिफारिश और क्यों की बजाये कैसे या किस तरह की कौमन सेन्स की व्यावहारिक आलोचना की तरफ प्रयाण ...में ही अपना और अपने विचारों का संगुम्फन ... बस यही है मेरी मदन से मदान तक की यात्रा ... मदान साहब से अगर कोई यह पूछता था की सीओ हैं क्या ... तो जवाब में और कुछ हो न हो एक शेर ग़ालिब का ज़रूर होता था उनके पास ... पूछते हैं वो की ग़ालिब कौन है ...कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ... मुजरा देखने दिखाने की आदत थी उन्हें ..पता नहीं कितना देखा या फिर कितना दिखाया .. मरने से पहले ,सुना है तीन चार शख्स आते जाते थे उनके पास ..सब जानते हैं की वो कौन लोग थे ... और भी रहे होंगे ,मेरे जैसे ,सहमे हुए से , थोड़े हैरान , थोड़े परेशान की आदमी इतना ही और इस तरह भी फेंक देने लायक होता है क्या ... नाराजगियां तो होती हैं ,,, गालियाँ भी देते हैं आप की बन्दा बड़ा साधारण था ..पर इतना... !यह तो मदान नहीं .. यह तो पहेली है ,भाई ...!
वो आदमी जानता था उसे दूसरों से कितनी तवक्को है हालांकि वो चला रहता था हर शाम ,बिन बुलाये भी ... किसी न किसी के घर ... कुछ आदत से मजबूर और कुछ थोड़ी चढ़ा लेने की मजबूरी में ... दुकेली जिंदगियों में झांकता हुआ एक अकेला आदमी... उनकी लाश पर दो औरतें एक दूसरे से अधिक ,जाने किस होड़ में सर धुन रही थीं .एक के पास आज भी शायद उनकी छोड़ी हुई संपत्ति होगी और दूसरी ... चलिए, उसकी तो बात क्या ... वो तो तीसरी ही को याद करते हुए गए ...वो छोटी सी कैंची पता नहीं उसने खो दी होगी या अभी तक उसकी यादों में भी होगी ... मैं कैसे कह सकता हूँ ... बता सकता था तो कुमार विकल .. पर वो भी जा चूका है ... मज़ाक ही सही ... पर कुछ तो खुलासा होता ...
कमाल करते हो , सब जानते हो तो हल निकालो न .
ReplyDeleteकिसका .
भाई, तुम्हीं जानो , तुम्हें तो सब पता है .
मुझे सब पता है लेकिन तुम क्या चाहते हो ,यह तो बताओ .
बताने से क्या होगा . क्या जानें ,मेरे बताने में भी कोई दोष हो ..इसलिए तुम खुद ही समस्या का हवाला खोजो और फिर हवाले का हल भी.
ऐसा कैसे हो सकता है ...
कैसे नहीं ,, तुम तो सर्वज्ञानी हो ..
वो तो हूँ पर तुम्हारा मसला टेढ़ा लग रहा है..
कितना
काफी
मात्रा में या लम्बाई चौडाई में .
मसले लम्बे चौड़े ही होते हैं .
तो .
तो क्या
इन्चिताप लाऊं .
लानत है तुम पर ...
THE ABOVE POEM IS BY DR ATUL VEER ARORA
ReplyDeletedoor kisi desh mein
ReplyDeleteBy Atul Arora · Friday, September 9, 2011
दूर किसी देश में वे चले आये हैं
दूर किसी देश से
संवादविहीन
खड़खडाती ज़िन्दगी
आह्लादविहीन
खिडकियों के टूटे में से
शायद किन्हीं झिर्रियों सी
निकल कर फलांगती
वीरान किसी टापू के
बीचों बीच उगते हुए
घने और भयावह
जंगल के रक्तिम
ख़ूनी आलोक में कहीं
गुम होती हुई
हवा तो है
हवा का भयानक उन्माद भी है
अस्त होते होते जहाँ
बची खुची
सिसकी जैसा सूरज भी है
हलक का अवसाद है
या रुकता बलता...
baazaar ka samay ....
ReplyDeleteby Atul Arora on Sunday, September 4, 2011 at 10:14am
.
वह मेरी हडबडाहट ही थी जो मैंने सुनी अपने उगने के वक़्त ...
मेरे जैसे तमाम दूसरे लोगों की हालांकि कहीं भी कमी नहीं थी ...
पर उसके तो कान थे और न ही आँख ...
आस पास भीड़ कहीं थमती नहीं थी ...
वह मेरी हडबडाहट ही थी जो दिख गयी मुझे ठगे जाने के वक़्त ...
संवेदनहीन
जब इतने करीब
भला इतने करीब से वह मेरे गुज़र गया
हाशिये पर भी जैसे मैं उसके लिए कहीं अब जीवित नहीं था ... ...
मेरे जैसे दूसरे तमाम लोगों की हालांकि कहीं भी कमी नहीं थी ...
एक दिन वह मुझे बाज़ार में मिला ...ज़रा नहीं हिला
मदमत्त पूर्ववत्त
बढ चढ़ कर हट्ठीयाया
जैसे खुद पर अनुरक्त
वह अपने पूरे यौवन पर था ..चीजें छप्पन भोग उसके आलोक में दमक रहे थे
मेरी पहुँच से बाहर
मैं अपनी जेब की रिक्ति में उलझा हुआ अभी महज़ आदमी बने रहने के रिझाव में था
ग़ुरबत से अपने टकराव में भी था
आस्तीन का सांप बन कर मुझसे लिपट गया और यकायक मुझे मेरे पूरे घर खेत समेत फूँक मार फूत्कार ज़हरीला डस गया...
Atul Arora
ReplyDeleteबैंकों के खातों में से
गुप्त किन्हीं रास्तो से
हुंडियों की भीड़ में से बेनाम निकला
हवाला का निवाला
गली मोहल्ले शहर देश विदेश में घटाटोप सरसराता
पूरे भूमंडल की वित्त व्यवस्था की खुराक हुंकारता फन तन गया ... लज़ीज़ किसका अज़ीज़ कहीं डाकू बन गया ...
ठन ठन गोपाल डसे जाने वाले बेहाल हालांकि मुझ जैसे दूसरे तमाम लोगों की कहीं दूर दराज़ तक कमी नहीं थी ... पर कैसे है न गुम सुम चलते ही रहते है.. भीड़ों की भीड़ में रोजाना जद्दोजहद में होश नहीं रोष नहीं संतोष का कोई तिनका हवा ही में उड़ता उडाता इन तक आता है ..बातचीत गुलगपाड़ा नाच टाप फ़िल्मी सा लगातार महफूज़ बना रखता है ..वक़्त कब बदलता है माप ताप फिक्रें श्राप सारे हिस्से के उत्सव बन जाते हैं अन्ना जैसा कोई जब गुस्से में आता है ...
September 4 at 10:41am · Unlike ·
ATUL VEER ARORA
ReplyDeletegranth koi mahaan.
by Atul Arora on Friday, August 12, 2011 at 9:18am
.
तीन सज्जन विरलों को
एक तस्वीर में
इकट्ठे देखो , आज
एक ही मंच पर .
सच सच कहना
तुम्हें बुरा लगा क्या
ईर्ष्या नहीं हुई
हैरानी तो कुछ देर को ज़रूर हुई होगी
कौन कहता है कि एक मयान में तीन तलवारें
एक साथ नहीं रह सकतीं ...
राजनीति में तो यह रोज़ होता है ...
कला के क्षेत्र में
हालांकि
होगी यह
दुर्लभ सौगात ... !
बधाई दो उन्हें
बधाई कला जगत को
बधाई संस्थानों को...
सांस्कृतिक दुर्घटनाएं तो होती ही रहती हैं
सुखद जो कभी कोई आश्चर्य होता है
उसे तुम ऐसे देखो
जैसे
ग्रन्थ
महान ....!
nuts...u know !.
ReplyDeleteby Atul Arora on Tuesday, August 2, 2011 at 9:35am
.
देखिये,भवानी बाबू की तरह मेरे पास हर किस्म की चीज़ नहीं है बेचने के लिए .. न मेरी भाषा में वह तंज़ है .. फिर भी बाज़ार में तो हूँ और व्यंग्य का सहारा है थोडा बहुत ...रोजमर्रा के जीने में होने वाली टूट फूट में क्विक फिक्स की माफिक काम में आने वाला पैर कई बार ऐसा भी होता है की उंगलियाँ चिपक जाती हैं और बात फिर बन नहीं पाती .. खुद मुझे ही ज़ख्म खाने / धोने पड़ते हैं ,मरम्मतें लगानी पड़ती हैं इधर उधर .. बातें बिगड़ जाती हैं और हंसी हंसी की चीज़ बड़ी भयानक होने लगती है .. तो आज मैं आपकी नज़र बादाम पेश करता हूँ .. नट्स यु नो ... नट बोल्ट्स भी ... नट्स खाने के लिए ..नट बोल्ट्स दांतों की मरम्मत के लिए .. ऐसा है कि नट्स या बादाम पेश कर रहा हूँ ,गिरियाँ नहीं ...गिरियाँ आपको निकालनी हैं ...कुछ मेहनत तो करनी होगी न ... कई लोग दांतों का इस्तेमाल करते देखे गए हैं इन्हें तोड़ने के लिए तो वो करें .. नट बोल्ट्स हाज़िर हैं ...हथौडे का इस्तेमाल करने वाले दिमागी कसरत करेंगे ... देखते हैं लहू कहाँ कहाँ से निकलता है ... फिलहाल कसरत कीजिये ... धन्यवाद ...
bhi hi..i hi bhi.
ReplyDeleteby Atul Arora on Monday, August 1, 2011 at 10:08am
.
मैंने सुना है ,आप लिखते भी हैं ?
भी नहीं जी, लिखता ही हूँ .
सिर्फ लिखते हैं ,पढ़ते नहीं ?
नहीं , पढता भी हूँ .
अच्छा अच्छा ,ही और भी में अंतर है .
वो तो है ही .
अच्छा अच्छा ,एक ही और आ गया.
मतलब ?
मतलब यही कि ही का मतलब और होता है और भी का मतलब और .
वह तो होता ही है . इसमें ऐसी हैरानी की भी क्या बात है ...?
अच्छा अच्छा, एक ही फिर आया..साथ में भी भी ..!
आप भी कमाल ही करते हैं ..
यह एक बार फिर हुआ.. !
क्या ?
यही ..!
यही क्या ?
वही..!
मैं कुछ समझा नहीं ..!
क्यों ?इसमें न समझ में आने वाली क्या बात है ...!
नहीं , मतलब .. यही वही क्या ..?
मतलब भी ही ही भी ही एक बार फिर हुआ ...!
वह तो है ..और होता ही रहेगा जब तक जैसी जैसी बात होती है ...
जैसी कैसी भी ?
जी !जैसी भी क्यों नहीं और कैसी ही क्यों नहीं ...
तो लिखने में ही और भी की अपनी अपनी भूमिका होती है ..
लिखने में हरेक शब्द की अपनी ही भूमिका होती है और यह भूमिका दूसरे किसी भी शब्द के साथ अपने ही किस्म का संवाद भी रचती है ...
ही फिर आया भी भी ...
ही भी ही भी ...आप जानना क्या चाहते हैं ..?
कुछ भी तो नहीं .. बस ऐसे ही .. ! भी ही भी ही ....
ATUL VEER ARORA
ReplyDeletegranth koi mahaan.
by Atul Arora on Friday, August 12, 2011 at 9:18am
.
तीन सज्जन विरलों को
एक तस्वीर में
इकट्ठे देखो , आज
एक ही मंच पर .
सच सच कहना
तुम्हें बुरा लगा क्या
ईर्ष्या नहीं हुई
हैरानी तो कुछ देर को ज़रूर हुई होगी
कौन कहता है कि एक मयान में तीन तलवारें
एक साथ नहीं रह सकतीं ...
राजनीति में तो यह रोज़ होता है ...
कला के क्षेत्र में
हालांकि
होगी यह
दुर्लभ सौगात ... !
बधाई दो उन्हें
बधाई कला जगत को
बधाई संस्थानों को...
सांस्कृतिक दुर्घटनाएं तो होती ही रहती हैं
सुखद जो कभी कोई आश्चर्य होता है
उसे तुम ऐसे देखो
जैसे
ग्रन्थ
महान ....!
ATUL VIR ARORA
ReplyDeleteसितम्बर १९६६ की एक बोहीमियन शाम थी वह ..मैं अभी एम. ए के लिए हिंदी विभाग में दाखिल ही हुआ था .डॉ. इन्द्रनाथ मदान के घर पर एक कविता शाम का आयोजन था .मुझे भी निमंत्रण था कि मैं अपनी कविता के साथ हाज़िर हो जाऊं .
चल , आ जाना शाम को मेरे घर . कुडियां नूं तां सुनांदा हैं तूं ...असीं वी सुनिए तैनूं ...
मैं हैरान कि कुडियां वाली बात कहाँ से पैदा हो गयी .अपनी झेंप एक तरफ रखते हुए मैं अभी शुक्रिया कहने की पशोपेश में था कि वो बोले ..
अच्छी जई कविता पढीं ... ओथे वड्डे धुरंधर कवि होनगे .
गर्मी की छुट्टियों में की गयी अपनी कलकत्ता यात्रा का जायका मेरे ज़हन में अभी ताज़ा था और विक्टोरिया मैमोरियल के इतिहास के पार्श्व को एक समकालीनता में विद्रूपित ढंग से संदर्भित करती हुई अपनी कविता जेब में डाले मैं बंकिम चन्द्र के 'आनंद मठ' की घोर राष्ट्रीयता, जिसे उन दिनों भी कुछ कुछ भ्रमित ही माना जाता था, से आलोड़ित ,टैगोर के 'गोरा' की विडम्बनाओं से त्रस्त और शरत के 'देवदास' की आवारगी के कब्ज़े में अधिकृत अपनी साइकिल पर सवार उनके घर जा पहुंचा. अकविता का दौर अभी चल रहा था और मेरे काव्यानुशासन में का गीत अपनी पटरी से उतर कर काफ्का कामुयाई हो चुका था . शरद देवड़ा का उपन्यास 'कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा 'अभी छपकर नहीं आया था लेकिन उसमें निहित चर्चाएँ और गिन्सबर्ग के नंगेज़ का शोर ज़रूर गरम था .
अस्तित्ववाद पर लिखे गए कैलाश वाजपेयी के लेख 'ज्ञानोदय' के माध्यम से च्झापकर आने के बाद हिंदी संसार में दर्ज हो चुके थे ... आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कि आभा ,आलोक और विद्वता का प्रभुत्व बनारस से चलकर चंडीगढ़ और उसके आसपास के इलाकों में स्थापित हो चुका था . कविता शाम कि अध्यक्षता भी वही कर रहे थे ..
ReplyDeleteमैंने साइकिल क्लोडनन की बाड़ के सहारे टिका दी और एक ज़बरदस्त उत्सवी माहौल में किसी पुरजोर जुम्बिश के साथ डॉ. मदान के घर के भीतर दाखिल हुआ . पूरे लॉन में दरियां और चादरें बिछी थीं .बीसियों लोग विराजमान थे .अध्यापक, छात्र , कविगण , श्रद्धालु और श्रोता . एक अच्छा खासा भद्र समाज .एक कोई सुरेशचंद्र वात्स्यायन थे जो अपना काव्य पाठ शुद्ध एवं क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ हिंदी में 'सविनय निवेदन है' कहकर कर रहे थे (जिनके बारे में बाद में पता चला कि डॉ. मदान उन्हें पांन चुब्लाते हुए फतवा देने से बाज़ नहीं आते थे कि यह आदमी कविता पढता है कि अप्लीकेशन लिखता है ...! मदान साहब की ऐसी टिप्पणियों का अपना ही संसार था .मजाहिया ... बैठे ठाले वाले उनके लेखों जैसा...मसलन , मैथिलीशरण गुप्त को वो राष्ट्रकवि क्या कवि भी मानने को तैयार नहीं थे ... उनका प्रसिद्ध वाक्य था कि 'राष्ट्रकवि' शब्द कुछ कुछ वैसे ही है जैसे 'दालचीनी' जिसमें न दाल है न चीनी . तो मैथिली जी की कविता में न राष्ट्रीयता है ,न वे कवि हैं ... हैं भी तो वे मात्र सलेटी कवि हैं जो सलेट पर लिखता है ...तुकें भिडाता और मिटाता है ... शायद इसीलिए जब वे 'साकेत ' का नवम सर्ग पढ़ाते थे तो क्लास से भाग जाने का मन होता था .. उनकी क्लास में वैसे भी आप फिकरेबाजी सुनने के लिए बैठना चाहो तो बैठ सकते थे ..गहरे पानी पैठ वहां का दृश्य नहीं था ...हालांकि शायद यह उनका स्टाइल था ...सूत्र शैली वाला ... सूत्रधार वाला नहीं ...!)
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मदान जी ने मेरी और उनकी पहली और अंतिम मुलाक़ात में मुझ पर भी चुटकी ली थी - मैं अपनी सालियों को चुटकुले सूना रहा था, वे मेघजी की ओर मुखातिब हुए और बोले 'तुम्हारा दामाद भी मेरी ही कैटेगरी का है' |
ReplyDeleteउनके छात्र उनकी नक़ल उतारते थकते नहीं थे .वो उम्र ही ऐसी होती है शायद कि बड़े से बड़ा आदमी भी छोटों की दुनिया में अजीब मसखरेपन का शिकार हो जाता है पर मदान साहब तो खुद ही मसखरी से बाज़ नहीं आते थे .. मेरे बारे में अक्सर वो यही कहते थे कि मैं अज्ञेय का 'शेखर ' बनने की कोशिश करता रहता हूँ ..यह तब की बात है जब शेखर को समझने के औज़ार भी नहीं थे मेरे पास .. पर खैर ..यह दुनिया है और दुनिया में हम सब हैं .. जब तक हैं ,तब तक ... औरतें इस दुनिया में हम से पहले आई हों या बाद में या दोनों एक साथ भी आये हो सकते हैं ...इसे समझाने में मदान साहब की कोई मदद मुझे नहीं मिली
..हालांकि उन्होंने हमें 'कामायनी ' भी पढाई ..और उसे एक असफल कृति कहते हुए उसकी असफलता को महान भी बतलाया ..! श्रद्धा और मनु की ऊब चूब में इडा से मार खाते न खाते मैंने भी एक बड़ी चीज़ ज़रूर सीख ली ...स्वाधीनता ... स्वतंत्र किस्म का सोचना ... बाड़ों में न घिरना .. आत्मरति की हद तक अपने आप से प्रेम .. बीमार नहीं ... कृति की राह वाली रति जैसा ... अपनी संशशलिष्टताओं को पहचानना और लगातार परखना ...सतह पर रहते हुए गहरे उतरना ...'अधिक ' और 'कम' , 'लय' और 'अन्विति'जैसे शब्दों की आवृत्तियों में शास्रीयता के बखिये उधेड़ने वाली आलोचना की खोज ...'इस तरह न होकर उस तरह क्यों नहीं' से परहेज़ की सिफारिश और क्यों की बजाये कैसे या किस तरह की कौमन सेन्स की व्यावहारिक आलोचना की तरफ प्रयाण ...में ही अपना और अपने विचारों का संगुम्फन ... बस यही है मेरी मदन से मदान तक की यात्रा ...
ReplyDeleteमदान साहब से अगर कोई यह पूछता था की सीओ हैं क्या ... तो जवाब में और कुछ हो न हो एक शेर ग़ालिब का ज़रूर होता था उनके पास ... पूछते हैं वो की ग़ालिब कौन है ...कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ...
मुजरा देखने दिखाने की आदत थी उन्हें ..पता नहीं कितना देखा या फिर कितना दिखाया .. मरने से पहले ,सुना है तीन चार शख्स आते जाते थे उनके पास ..सब जानते हैं की वो कौन लोग थे ... और भी रहे होंगे ,मेरे जैसे ,सहमे हुए से , थोड़े हैरान , थोड़े परेशान की आदमी इतना ही और इस तरह भी फेंक देने लायक होता है क्या ... नाराजगियां तो होती हैं ,,, गालियाँ भी देते हैं आप की बन्दा बड़ा साधारण था ..पर इतना... !यह तो मदान नहीं .. यह तो पहेली है ,भाई ...!
वो आदमी जानता था उसे दूसरों से कितनी तवक्को है हालांकि वो चला रहता था हर शाम ,बिन बुलाये भी ... किसी न किसी के घर ... कुछ आदत से मजबूर और कुछ थोड़ी चढ़ा लेने की मजबूरी में ... दुकेली जिंदगियों में झांकता
हुआ एक अकेला आदमी... उनकी लाश पर दो औरतें एक दूसरे से अधिक ,जाने किस होड़ में सर धुन रही थीं .एक के पास आज भी शायद उनकी छोड़ी हुई संपत्ति होगी और दूसरी ... चलिए, उसकी तो बात क्या ... वो तो तीसरी ही को याद करते हुए गए ...वो छोटी सी कैंची पता नहीं उसने खो दी होगी या अभी तक उसकी यादों में भी होगी ... मैं कैसे कह सकता हूँ ... बता सकता था तो कुमार विकल .. पर वो भी जा चूका है ... मज़ाक ही सही ... पर कुछ तो खुलासा होता ...